Sunday, July 15, 2018

"कहाँ खजाना गड़ा हुआ है" ?


गजल -

सत्य जेल में पड़ा हुआ है
झूठ द्वार पर खड़ा हुआ है।।

बाँट रहा वह किसकी दौलत
कहाँ खजाना गड़ा हुआ है।।

उस दामन का दाग दिखे क्या
जिस पर हीरा जड़ा हुआ है।।

अब उससे उम्मीदें कैसी
वह तो चिकना घड़ा हुआ है।।

पाप कमाई, बाप कमाए
बेटा खाकर बड़ा हुआ है।।

लोकतंत्र का पेड़ अभागा
पत्ता पता झड़ा हुआ है।।

सत्ता का फल दिखता सुंदर
पर भीतर से सड़ा हुआ है।।

नर्म मुलायम दिल बेचारा
ठोकर खाकर कड़ा हुआ है।।

उसे राष्ट्रद्रोही बतला दो
"अरुण" अभी तक अड़ा हुआ है।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Friday, July 13, 2018

एक गजल - कुर्सी (अरुण कुमार निगम)

बहर
221 1222, 221 1222

कुछ काम नहीं करता, हर बार मिली कुर्सी
मंत्री का भतीजा है, उपहार मिली कुर्सी।।

गत सत्तर सालों में, कई रोग मिले तन को
जाँचा जो चिकित्सक ने, बीमार मिली कुर्सी।।

पाँवो को हुआ गठिया, है पीठ भी टेढ़ी-सी
लकवा हुआ हाथों को, लाचार मिली कुर्सी।।

फिर भी इसे पाने को, हर शख्स मचलता है
सेवा तो बहाना है, व्यापार मिली कुर्सी।।

कुछ पा न सके इसको, इक उम्र गँवा के भी
कुछ खास घरानों में, अधिकार मिली कुर्सी।।

है नाव सियासत की, उस पार खजाना है
जो लूट सके लूटे, पतवार मिली कुर्सी।।

जनता के खजाने को, क्या खूब लुटाती है
कहता है "अरुण" दिल से, दिलदार मिली कुर्सी।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)