Saturday, April 22, 2017

बेला के फूल

दोहा छन्द - बेला के फूल 

स्पर्धा थी सौंदर्य की, मौसम था प्रतिकूल
सूखे फूल गुलाब के, जीते बेला फूल |


चली चिलकती धूप में, जब मजदूरन नार 
अलबेली को देख कर, बेला मानें हार | 

हरदम हँसता देख कर, चिढ़-चिढ़ जाये धूप
बेला की मुस्कान ने, और निखारा रूप | 
पहले गजरे की महक, कैसे जाऊँ भूल 
सुधियों में अब तक खिले, अलबेला के फूल |

मंगल-बेला में हुआ, मन से मन का ब्याह
मन्त्र पढ़े थे नैन ने, बेला बना गवाह |
 

बेलापुर से रामगढ़, चले बसंती रोज 
बेला का गजरा लिये, वीरू करे प्रपोज |



- अरुण कुमार निगम
 

Saturday, April 15, 2017

कुण्डलिया छन्द: पलाश का फूल

कुण्डलिया छन्द:

पहचाना जाता नहीं,  अब पलाश का फूल
इस कलयुग के दौर में, मनुज रहा है भूल
मनुज रहा है भूल,   काट कर सारे जंगल
कंकरीट में  बैठ,  ढूँढता  अरे  सुमङ्गल
तोड़ रहा है नित्य,  अरुण कुदरत से नाता

अब पलाश का फूल,  नहीं पहचाना जाता।।

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)