पंचों
की बैठक बुलवा कर , क्यों शामत बुलवाई है
जिसके
दिल में चोर छुपा हो , देता वही सफाई है |
ना समझी
है दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
वही कैद होता जेलों में
, घूम रहा दंगाई है |
भीड़
बढ़ी है बाजारों में , कितने चाँदी काट रहे
समझ
नहीं मैं पाया यारों , कहाँ छुपी महँगाई है |
अदल
बदल कर पहन रहा है , दो कुरते पखवाड़े भर
इक दिन
हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है |
हंसों
से कछुवों ने गुपचुप कुछ सौदे हैं कर डाले
पूछे
कौन समंदर से तुझमें कितनी गहराई है |.
अरुण
कुमार निगम
आदित्य
नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय
नगर, जबलपुर (म.प्र.)
(ओपन बुक्स ऑन लाइन के तरही मुशायरा में शामिल मेरी गज़ल)